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Monday 29 December 2014

फर्जी फिल्म और फर्जी विवाद.. पीके हो क्या?

कभी कभी एक सवाल उठता है... ये सवाल अटपटा है लेकिन सच पर आधारित है. ऐसा क्यों होता है कि बॉलीवुड की फिल्मों में जब भी कभी किसी चर्च के फादर को दिखाया जाता है तो बैंकग्राउंड में गिरजाघरों के घंटे बजने लगते हैं.. माहौल आध्यात्मिक हो जाता है.. सफेद कपड़े में फादर आते हैं और हर बार अच्छी अच्छी बातें और उपदेश देते हैं. हीरो हिरोईन को शांति की तलाश होती है.. सही जवाब की खोज करनी होती है तो वो चर्च पहुंच जाते हैं.. यही हाल मौलवियों का भी है.. मौलवियों को भी इसी तरह दिखाया जाता है.. कई सारी फिल्मों में हीरो हिरोइन शांति की तलाश में किसी मजार में पहुंच जाते है.. मौलवियों को ईमानदार, सरल, भगवान के करीब और न्यायप्रिय दिखाया जाता है. ऐसा उन फिल्मों में होता है जो धार्मिक जोनर की फिल्म नहीं है.. जिसकी स्टोरी का धर्म से कुछ लेना देना नहीं होता है.. इन फिल्मों की स्टोरी प्रोग्रसिव होती है.. फिल्म डायरेक्टर से लेकर उसके चाहने वाले भी आधुनिक विचारों के प्रवर्तक होते हैं. हालांकि फिल्मों में ऐसा दिखाने में किसी को कोई आपत्ति नहीं है.. लेकिन जब भी किसी पंडित पुजारी को दिखाया जाता है तो उसे कपटी, बेईमान, झूठा, पैसे ठगनेवाला और बलात्कारी के रूप में पेश किया जाता है.. सिर में चोटी, माथे पर अजीब किस्म का चंदन, धोती, लंगोट, भाषा आदि से ऐसा कैरेक्टर तैयार किया जाता है जो कभी कॉमेडियन लगता है या फिर शैतान का कोई अवतार हो. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि अक्सर यही देखा गया है.. हां, इसका कुछ अपवाद हो सकता है लेकिन आमतौर पर यही पैटर्न हमने हिंदी फिल्मों में देखा है. अगर बॉलीवुड की किसी फिल्म में आपने एक कपटी, बेईमान, झूठा, पैसे ठगनेवाला और बलात्कारी फादर या मौलवी देखा हो तो जरूर मुझे बताइये.. मैं अपनी सोच को बदलने के लिए तैयार हूं..

लेकिन एक चीज मैं मानने के लिए तैयार नहीं हूं कि बॉलीवुड के फिल्म-निर्माता विचारवान व विद्वान होते हैं. ये धनाढ्य-कालीदास हैं. जो अपनी मूर्खता का प्रदर्शन अपनी फिल्मों में कर तो देते हैं लेकिन वेतनभोगी बुद्धिजीवी उन बेवकूफियों पर थ्योरी देने लग जाते हैं. इसलिए फिल्मों को लेकर जब भी विवाद होता है तो उसके लिए फिल्म से ज्यादा फिल्म के बारे में थ्योरी बनाने वालों का रोल होता है. रिव्यू लिखने वालों का रोल होता है. टीवी चैनलों का रोल होता है. हर फिल्म का प्रचार-प्रसार पीआर एजेंसी के जरिए होता है. विवाद खड़ा करना या न करना ये पीआर एजेंसियां तय करती हैं. ये सब पैसे लेकर इन धनाढ्य-कालीदासों का महिमा-मंडन करते हैं. बॉलीवुड अल्पबुद्धि और गंवार लोगों की जमात है इसलिए इन्हें सीरियसली लेना ही गलत है. बॉलीवुड में फिल्म बनाने वाले ज्यादातर लोग व्यवसायी हैं जो मसाला, डांस, अंगप्रदर्शन और यहां तक की बलात्कार दिखा कर पैसे कमाने के धंधे में हैं. यही बॉलीवुड की सच्चाई है कि 95 फीसदी फिल्में हिट फार्मूले पर बनती है. यह फार्मूला किसी विचार पर नहीं बल्कि आइटम नंबर, डांस, मारधाड़ और सेक्स सीन पर टिका है. लेकिन फिल्म पीके उन 5 फीसदी में आती है जिसके निर्माता भी व्यवसायी ही होते हैं लेकिन उन्हें टीवी चैनल इंटेलेक्चुअल, समाज-सुधारक और विचारवान के रूप में पेश करते हैं. ये भी व्यवसायी ही हैं लेकिन इनका अंदाज निराला है.

पीके फिल्म से पहले एक फिल्म आई थी, जिसका नाम था OMG (ओह माई गॉड). वो फिल्म पीके से हर मायने में बेहतर थी. धार्मिक ढोंग को इस फिल्म में ज्यादा बेहतर तरीके से एक्सपोज़ किया गया था. बाबाओं की असलियत उसमें ज्यादा बेहतर ढंग से दिखाई गई थी. कलाकारों का अभिनय बेहतर था और पटकथा भी अच्छी थी. आस्था के मानव जीवन पर असर को भी सही ढंग से दिखाया गया था. मजेदार बात यह है कि जब ओह माई गॉड रिलीज हो रही थी तब पीके के व्यवसायी-निर्माता फिल्म को न रिलीज करने के लिए 8 करोड़ रुपये देने को तैयार हो गए थे. एक और बात यह कि उस फिल्म के खिलाफ इतना हंगामा नहीं हुआ था. इसकी दो वजहें थीं. पहली, वो फिल्म ज्यादा बैलेंस थी जबकि पीके में हर धर्म को निशाने पर नहीं लिया गया. दूसरी बात यह कि उस फिल्म को देश के वैचारिक-ठेकेदारों का संरक्षण प्राप्त नहीं था. कहने का मतलब यह कि ये पूरा विवाद फिल्म की स्ट्रेटेजी का हिस्सा है. जिससे इस फिल्म को ज्यादा मीडिया स्पेस मिल सके. यह फिल्म रिलीज के पहले ही चार पांच दिन में जरूरत से ज्यादा कमा चुकी है और अब जो भी कमाई हो रही है वो मुनाफा ही है. कुछ लोग फिल्म के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं जबकि फिल्म से जुड़े लोग इस विरोध से परेशान होने के बजाय खुशियां मना रहे हैं. वो जानते हैं कि जितना विवाद होगा कमाई उतनी ज्यादा होगी.

अब सवाल यही है कि बॉलीवुड में हिंदू धर्म की आस्था पर ही क्यों चोट की जाती है? तो इसका उत्तर बहुत ही साफ है. पहला यह कि हिंदू के अलावा दूसरे धर्म का मजाक उड़ाने पर देश के वैचारिक-ठेकेदार उसे कम्यूनल घोषित कर देते. दूसरी बात यह है कि हिंदू धर्म के खिलाफ बोलना और मजाक उड़ाना भारत में अभिव्यक्ति के अधिकार का अभिन्न अंग हैं. अगर आप अभिव्यक्ति के अधिकार के सेनानी हैं तो हिंदूओं के खिलाफ बोलने से ही इसकी पुष्टि हो सकती है. तीसरी बात यह कि यह एक वैचारिक दासता का भी परिचायक है. देश में वामपंथी-सेकुलर-प्रगतिशील डिस्कोर्स और तर्क का मूल सार भी यही है कि पश्चिम की हर बात सही और भारत का इतिहास-संस्कृति-धर्म-सभ्यता का हर चिन्ह गलत और बुरा है. चूंकि फिल्म बनाने वाली जमात इसी डिस्कोर्स की उपज है तो वही दिखाया जाएगा जैसा कि पहले पैरा में लिखा गया है. लेकिन इन सबसे अलग और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ये सारे तथाकथित प्रगतिशील लोगों को यह मालूम है कि दुनिया में सिर्फ हिंदू धर्म ही ऐसा है जिसमें विरोध, व्यंग, कटुवाक्य और निंदा सहने की शक्ति है. उन्हें ये भी मालूम है कि दूसरे धर्म की निंदा संभव नहीं है क्योंकि इससे उनकी जान पर बन आएगी. वैसे भी फिल्म बनाने वाले तो धंधेबाज लोग होते हैं ये थोड़े ही कोई सलमान रुश्दी या तस्लीमा नसरीन हैं जो अभिव्यक्ति के अधिकार के लिए जान की बाजी लगा दे.

इसलिए, पीके का विरोध करने वालों को धैर्यवान होने की जररूत है. वैसे विरोध का कोई फायदा नहीं जिस विरोध से आपके विरोधी को फायदा हो जाए. विरोध करने के लिए सोशल मीडिया है जिसमें आप अपना विरोध दर्ज करा सकते हैं. अब वैसे भी बहुत ज्यादा हो गया. विरोध की वजह से एक औसत फिल्म सुपर हिट हो गई.

अब जाने भी दो... पीके हो क्या?

- Dr. Manish Kumar, Editor, Chauthi Duniya

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